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विनायक दामोदर सावरकर भारत की आजादी के इतिहास में ऐसे व्यक्ति हैं जो कुछ वर्षों से चर्चा में बने हैं. सावरकर को लेकर कई किताबें लिखी गई हैं और लिखी भी जा रही हैं. इस कड़ी में कमलकांत त्रिपाठी की लिखी गई 'विनायक दामोदर सावरकर नायक बनाम प्रतिनायक' पुस्तक चर्चा का केंद्र बनी हुई है.
Updated : Apr 19, 2024, 02:54 PM IST
क्रांतिकारियों की परस्पर तुलना, उनके बलिदान, उनकी यातना और उनकी सहनशक्ति का सोपानीकरण हम जैसे सुविधाभोगी लोगों के लिए शर्मनाक है. सभी क्रांतिकारी हमारी कल्पना से परे, हमसे भिन्न थे. सबकी परिस्थितियाँ परस्पर भिन्न थीं, विचार-प्रक्रिया भिन्न थी. सावरकर उनमें से एक थे. क्रांतिकारियों को परस्पर बड़ा-छोटा बताना प्रायः परिप्रेक्ष्य-विहीन होता है, हम जैसे दुनियादारों के लिए अनधिकार चेष्टा भी. जिसके बारे में जितने तथ्य ज्ञात हैं, हम निरपेक्ष रूप से उनका उल्लेख भर कर सकते हैं. सावरकर को आजीवन काला पानी की दो सजाएँ एक साथ हुई थीं और उन्हें एक के बाद एक भोगना था. बनारस के क्रांतिकारी शचींद्रनाथ सान्याल को दो बार अलग-अलग आजीवन काला पानी की सजा हुई थी. 1915 की असफल देशव्यापी क्रांति के लिए जो आजीवन काला पानी की सजा उन्हें हुई, प्रथम विश्वयुद्ध के बाद की आम माफ़ी में उससे मुक्ति मिल गई. सान्याल अंडमान से लौटकर गांधी जी के असहयोग आंदोलन के हश्र का इंतजार करने के बाद, फिर अपने क्रांतिपथ पर चल पड़े. हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी का गुप्त संगठन बनाया, देश भर में ‘क्रांतिकारी’ शीर्षक से एक पीले परचे पर उसके लक्ष्यµदेश के संघीय, लोकतांत्रिक संविधान का प्रचार किया. परचे के लिए दो साल की सजा काट ही रहे थे कि काकोरी कांड की तफ्ऱतीश में उस परचे की भूमिका का ख़ुलासा हुआ, दुबारा आजीवन काला पानी की सजा हुई. जुलाई, 1937 में सूबों में बनी कांग्रेस सरकार द्वारा उन्हें छोड़ा गया. कितु द्वितीय
विश्वयुद्ध के समय जापान के भारतीय क्रांतिकारियों से संपर्क के संदेह में उन्हें तीसरी बार (भारतीय) जेल में डाल दिया गया. यक्ष्मा की पुरानी बीमारी के गंभीर होने पर गोरखपुर जेल में उनका देहावसान हुआ. समय का खेल है, आज बंजर-सी लगती इस धरती ने एक से एक बढ़कर सूरमा सपूत पैदा किए हैं.
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संयोग ही है कि सावरकर बंधुओं की तरह कोई भी दो क्रांतिकारी भाई एक साथ सेल्युलर जेल में नहीं रहे, जब तीसरा भाई हर क्रांतिकारी वारदात पर शक के आधार पर जेल में ठूँस दिया जाता था. सेल्युलर जेल से सावरकर बंधुओं को रिहाकर कभी ‘मुक्त’ नहीं किया गया. 1921 में विनायक सावरकर को वहाँ से रत्नागिरि जेल और उनके बड़े भाई गणेश सावरकर को बीजापुर जेल स्थानांतरित किया गया. जनवरी, 1924 में रत्नागिरि जेल से रिहाई के बाद विनायक सावरकर को अनिश्चित काल के लिए रत्नागिरि जिले की सीमा में नजरबंद रखा गया, जिससे ब्रिटिश सरकार ने उन्हें कभी मुक्त नहीं किया. 1937 में होनेवाले पहले लोकप्रिय चुनाव के बाद बंबई प्रेजीडेंसी में बनी धन जी शाह कूपर और जमनादास मेहता की अंतरिम (अल्पमत) सरकार ने उन्हें 10 मई, 1937 को नजरबंदी से मुक्तकर देश का स्वतंत्र नागरिक बनाया. इस तरह मार्च, 1910 में लंदन में गिरफ्ऱतार हुए विनायक सावरकर मई, 1937 में (27 साल बाद) पूर्ण मुक्त हुए जिस दौरान 10 साल सेल्युलर जेल में रहे. गणेश सावरकर, जो फ़रवरी, 1909 में बंबई से गिरफ्ऱतार हुए थे, गंभीर रूप से बीमार होने पर सितंबर, 1922 में (12 साल बाद) भारतीय जेल से रिहा हुए. बीच में 11 साल वे सेल्युलर जेल में रहे. न्यायालय के आजीवन कारावास के फ़ैसले के साथ ही दोनों भाइयों की संपूर्ण संपत्ति की जब्ती का भी फ़ैसला हुआ था और बरतन-भाँडे तक जब्त हो गए थे. दोनों की संतानहीन पत्नियाँ निराश्रित हो गई थीं. विनायक सावरकर की पत्नी यमुनाबाई का मायका संपन्न था तो उन्हें वहाँ आश्रय मिल गया था. कितु गणेश सावरकर की पत्नी येसूबाई बेसहारा इधर-उधर भटकती, पति के सेल्युलर जेल से बीजापुर जेल में स्थानांतरण के दो साल पहले 5 फ़रवरी, 1919 को 34 वर्ष की कच्ची उम्र में दिवंगत हो गई थीं. पति के सेल्युलर जेल जाने के बाद फिर से उन्हें देखने का सौभाग्य येसूबाई को नहीं मिला (गणेश सावरकर ने भी निःसंतान होने के बावजूद दूसरी शादी नहीं की). सावरकर के छोटे भाई नारयणराव, सिर्फ़ उनके भाई होने के नाते, बिना किसी न्यायिक साक्ष्य के कई बार गिरफ्ऱतार हुए और जेल गए; उनका दारुण अंत गांधी जी की हत्या की प्रतिक्रिया में महाराष्ट्र में चितपावन ब्राह्मणों के विरुद्ध हुए भीषण दंगों के दौरान भीड़ द्वारा सिर पर भारी पत्थर मारने से लगी गंभीर चोट और तज्जन्य पक्षाघात से हुआ. स्वाधीनता-आंदोलन की कठिन क्रांतिकारी धारा में संपूर्ण सावरकर परिवार का योगदान अप्रतिम कष्ट उठाने और सब कुछ न्योछावर कर देने के रूप में रहा.
सावरकर ने जब सेल्युलर जेल में प्रवेश किया, उनके मनोजगत में अगले 50 वर्षों तक सतत चलनेवाली उस कुख्यात जेल की कुख्यात यातना और उसके बाद के अपने भविष्य को लेकर, देश में घटित हो रही घटनाओं और राजनीतिक धाराओं के प्रवाह की दिशा को लेकर, अपने व देश के भूत और भविष्य के अंतर्संबंध को लेकर कौन-सा ताना-बाना बुना जा रहा होगा?
सेल्युलर जेल पहुँचते ही सावरकर को ‘डी’ (डेंजरस) श्रेणी के क़ैदी का दर्जा मिल गया, जो उनकी वरदी पर छपा रहता था. वर्दी माने घुटने तक की पतलून (हाफ़ पैंट), आधी बाँह का कुर्ता और सफ़ेद टोपी. सावरकर को तीन मंजिला जेल के कुल 7 खंडों में से सातवें खंड की तीसरी मंजिल की एक कोठरी में रखा गया. प्रत्येक कोठरी 13-5 फुट x 7-6 फुट के नाप की थी. कोठरी से मंजिल के साझे बरामदे में खुलनेवाला, लोहे की छड़ों का एक दरवाजा था, जिसके बंद होने पर भी कोठरी के अंदर की गतिविधि पर पहरेदारों द्वारा नजर रखी जा सकती थीµकोठरी में बंद जीवन और निजता का अभाव साथ-साथ. कोठरी में पीछे की ओर 9 फुट 8 इंच की ऊँचाई पर दो-दो इंच के फ़ासले पर लगी लोहे की छड़ों वाला एक रोशनदान था (इसी की छड़ से कपड़ा लटकाकर, उसे गले में बाँधकर यातना से मुक्ति का प्रचलन था). भीतर डेढ़ हाथ (लगभग 30 इंच) चौड़ाई की लकड़ी की तख़्तनुमा खाट थी और एक कोने में पानी के लिए कोलतार से काला पुता, मिट्टी का एक घड़ा रखा था. बरामदे की बाहरी दीवार मेहराबदार थी. कितु हर मेहराब में लोहे की छड़ें लगाकर पूरी दीवार को अभेद्य बना दिया गया था. सातों खंडों के मिलनबिंदु, इमारत के केंद्र में ऊँची मीनार थी; सभी खंडों में घुसने और वहाँ से निकलने का एकमात्र द्वार मीनार में ही था और उस पर चौबीसों घटे सख़्त पहरा रहता था.
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जेल-अधीक्षक को भारत सरकार से सावरकर के बारे में विशेष निर्देश पहले ही मिल चुके थे, जिनमें मार्सेई में उनके द्वारा जहाज से समुद्र में कूदकर दुःसाहसिक पलायन के प्रयास का उल्लेख करते हुए उनके संबंध में अतिरिक्त चौकसी बरतने का आदेश दिया गया था.
सातवें खंड की तीसरी मंजिल पर सावरकर को तो एक ही कोठरी मिली थी. कितु सुरक्षा की दृष्टि से खंड की उस मंजिल की सारी कोठरियाँ ख़ाली करवा ली गई थीं. सेल्युलर जेल के ख़तरनाक क़ैदियों में भी सावरकर विशिष्ट कोटि के ख़तरनाक क़ैदी थे, जिनके लिए विशेष इंतजाम किये गए थे.
आर सी मजुमदार ने The Penal Settlements in the Andamans' (Gazzeteer Unit, Ministry of Education and Social Welfare, Government of India–pdf, 1977) र्षक से एक पुस्तक लिखी है. इसके भाग-III में जेल के राजनीतिक क़ैदियों (जिन्हें राजद्रोही-seditionist-क़ैदी कहा जाता था) का कठिन जीवन विस्तार से वर्णित है. इसमें दिए गए विवरण, मजुमदार के अनुसार, अंडमान जेल के तीन क़ैदियोंµबारींद्र कुमार घोष (अंग्रेजी मेंA Tale of My Excile) उपेंद्र नाथ बनर्जी (बँगला में) और विनायक दामोदर सावरकर (मराठी में) द्वारा लिखे गए संस्मरणों के अतिरिक्त विभिन्न क़ैदियों द्वारा सरकार को भेजी गई याचिकाओं, गवर्नर जनरल की कौंसिल के गृह सदस्य रेजिनाल्ड क्रैडक के जेल-निरीक्षण व जाँच की रिपोर्ट, भारतीय समाचारपत्रें की रिपोर्टों, उन पर सरकार की टिप्पणियों तथा कुछ लौटे हुए क़ैदियों द्वारा बताए गए तथ्यों पर आधारित हैं. इन विवरणों से जो चित्र उभरता है, पाठकों को उसकी जानकारी हुए बिना सेल्युलर जेल में 10/11 सालों के दौरान सावरकर बंधुओं पर क्या गुजरी और उन्होंने कैसे उसका सामना किया, इसका परिप्रेक्ष्य समझ में आना कठिन है. जब हम सावरकर को तिरस्कारपूर्वक ‘माफ़ीवीर’ कहकर उनकी खिल्ली उड़ाते हैं, पहले हमें उन दिनों के सेल्युलर जेल में 10 साल के बजाय 10 दिन भी रह पाने की अपनी क्षमता पर एक दृष्टि नहीं डाल लेनी चाहिए? अंध ‘पक्षधरता’ हमें अपने देश के नायकों के प्रति किस हद तक असंवेदनशील बना देती है!
सबसे पहले क़ैदियों का सामना जिस विसंगति से होता था, वह थी हिंदू क़ैदियों और ग़ैर-हिंदू क़ैदियों में धार्मिक मामलों को लेकर भेदभाव. जेल में आते ही हिंदू क़ैदियों का यज्ञोपवीत (जनेऊ) निकालकर फेंक दिया जाता था, दैनिक धार्मिक कृत्यों का तो कोई सवाल ही नहीं था. कितु मुसलमानों की दाढ़ी और सिखों के लंबे बालों पर कोई आपत्ति नहीं थी.
अंडमान जेल के लिए ‘राजनीतिक क़ैदी’ का जुमला अतिरिक्त सुविधा के बजाय अतिरिक्त यंत्रणा का पर्याय था. ये राजनीतिक क़ैदी अपने पूरे जेल-जीवन में सश्रम कारावास (rigourous imprisonment) के क़ैदी बने रहते थे और अंडमान जेल में जिस तरह के कठिन श्रम इनसे लिए जाते थे, हमारे लिए अकल्पनीय हैं. सरकार का मक़सद राजनीतिक क़ैदियों की अमानवीय यातना और पग-पग पर उनके घोर अपमान के विचित्र तरीक़ों से उनके आत्मसम्मान को रौंदकर, उन्हें भीतर-बाहर से तोड़कर, उनकी आत्मा को हमेशा के लिए कुचल देना था. आत्महत्या और पागल होने की जितनी भी घटनाएं वहाँ घटीं, सभी राजनीतिक क़ैदियों से संबंधित थीं. हम कह सकते हैं, राजनीतिक क़ैदियों के लिए यह कारागार हिटलर के यातना-शिविरों का ब्रिटिश संस्करण था.
प्रतारणा के अमानुषिक कृत्य के लिए जेल प्रशासन को मानव-संसाधन पर अतिरिक्त ख़र्च की जरूरत नहीं थी. दुर्दांत पेशेवर अपराधी (आगे अपराधी) क़ैदियों के संवर्ग का ही इसके लिए इस्तेमाल होता था, जो उन क़ैदियों का प्रिय काम होता था. इस संबंध मे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि जेल-प्रशासन में प्रचलित क़ैदियों की प्रोन्नति का नियम राजनीतिक क़ैदियों पर लागू नहीं होता था, वे शुरू से अंत तक जेल की ‘प्रजा’ बने रहते थे. केवल अपराधी क़ैदी ही वरिष्ठता के आधार पर प्रोन्नति प्राप्त कर वार्डर, पेटी ऑफ़िसर, टिंडल और जमादार बनते थे और राजनीतिक क़ैदियों पर क्रूरतापूर्वक शासन करते थे, जिनके ख़िलाफ़ कहीं कोई सुनवाई नहीं थी, यहाँ तक कि कार्यालय के काम के लिए भी पढ़े-लिखे राजनीतिक क़ैदियों के बजाय अपराधी क़ैदियों में से ही अधपढ़ लोगों को लगा दिया जाता था, जो जेल के सरकारी कर्मचारियों की देखरेख में रूटीन काम किया करते थे. राजनीतिक क़ैदी आपस में बात तक नहीं कर सकते थे, स्वेच्छा से दो राजनीतिक क़ैदियों के मिलने तक पर पाबंदी थी. इसका उल्लंघन होने पर वार्डर वग़ैरह बने इन्हीं अपराधी क़ैदियों द्वारा उन्हें दंडित किया जाता था. इस तरह राजनीतिक क़ैदी शुरू से अंत तक इन अपराधी क़ैदियों के रहम पर रहते थे.
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व्यवहार में इस नियम ने हिंदुओं के लिए एक अतिरिक्त धार्मिक उत्पीड़न का रूप ले लिया था. राजनीतिक क़ैदी प्रायः सभी हिंदू थे और एक अलिखित नियम के तहत उनके ऊपर नियंत्रण के लिए हिंदू अपराधी क़ैदी नहीं लगाए जाते थे, इस संदेह की बिना पर कि वे नरमी से पेश आएँगे और ढील देंगे. यह काम पंजाब और पश्चिमोत्तर सीमाप्रांत के स्वभाव से कठोर, उद्धत और हट्टे-कट्टे अपराधी पठानों को सौंपा गया था, जो पढ़े-लिखे, सुसभ्य हिंदू राजनीतिक क़ैदियों पर धौंस जमाने में परपीड़न का सुख महसूस करते थे. उन्हें धार्मिक ठेस पहुँचाते थे, नीचा दिखाते थे, गंदी-गंदी गालियाँ बकते थे, बात-बात पर पिटाई करते थे, उनको खाने के लिए मिली रोटियाँ तक हड़प लेते थे (ये पठान क़ैदी आदतन चावल नहीं खाते थे और उन्हें अधिक रोटियों की जरूरत पड़ती थी). मद्रास, बंगाल और बंबई प्रांतों के मुस्लिम क़ैदियों को भी ये पठान ‘आधा क़ाफिर’ कहकर चिढ़ाते और अपमानित करते थे.
इनके बारे में बारींद्र घोष ने लिखा है, फ्ऐसी सोच थी कि हिंदू पहरेदार हमारे साथ सांत्वनापूर्ण भाईचारे से पेश आएँगे. इसलिए हमारी वि़फ़स्मत के नियंता छोटे (क़ैदी) अधिकारियों एवं पहरेदारों को हिंदुस्तानी, पंजाबी या पठान मुसलमानों में से चुना गया था. पठान, जिन्हें हम आमतौर पर काबुली मेवा बेचनेवाले के रूप में (टैगोर की कहानी ‘काबुलीवाला’ का संदर्भ) जानते थे, पोर्ट ब्लेयर में यमराज के अनुचर के रूप में सामने आए. किसी व्यक्ति को बुलाने के लिए कहा जाए तो वे उसे सिर से दबोचकर लाते थे. ख़ुद आलसी, निष्क्रिय और भ्रष्ट होते हुए भी वे दूसरों से काम करवाने के मामले में कट्टर हिंसक थे---’ अमुक पंक्ति में आड़ा होकर बैठा है, उसके गले पर दो घूँसे जड़ो. अमुक ने उठकर बैठने के हुक्म को तुरंत नहीं माना, उसकी मूँछें उखाड़ लो. अमुक ने शौचालय से आने में देर लगाई है, डंडे से उसके नितंबों का माँस ढीला कर दो’. ऐसी ‘सौहार्दपूर्ण’ कार्रवाइयों के दम पर वे कारागार में अनुशासन क़ायम रखते थे.य् (Barindra Ghosh, The Tale of My Exile, pdf, p-66-67)
मिर्जा ख़ान नाम का एक कर्मचारी इन उत्पीड़कों का संरक्षक था. वह एक ग़ैर-क़ैदी कर्मचारी था और बारी का दाहिना हाथ बन गया था. उसे लोग आपसी बातचीत में ‘छोटा बारी’ कहते थे.
कड़ी धूप हो या तेज बारिश आ जाए, खाना खुले में लाइन लगाकर ही लेना पड़ता था और खुले में ही खाना पड़ता था. लगातार नजर रखने और परस्पर बातचीत न करने देने की जरूरत के चलते बारिश के पानी से ख़ुद को और खाने को बचाने के लिए वे कहीं आड़ में जाकर खाना नहीं खा सकते थे. खाना ख़त्म करने का समय घड़ी की सुई पर नहीं, वार्डर के चिल्लाकर दिए गए आदेश पर निर्भर करता था. क़ैदी न तो अतिरिक्त खाना माँग सकते थे, न दिए हुए खाने में से कुछ छोड़ सकते थे. कभी किसी ने कुछ खाना फेंक दिया तो उसे वापस लाकर खाना पड़ता था. पीने का पानी इतना बदबूदार होता था कि क़ैदियों को उसे नाक बंदकर पीना पड़ता था.
क़ैदियों को समुद्र के खारे पानी से एक कतार में खड़े होकर, सामूहिक रूप से, बेहद छोटी लंगोटी पहनकर, लगभग नग्नावस्था में स्नान करना पड़ता था. सामूहिक रूप से कतार में लगभग नग्न खड़े होकर नहाने की शर्मिंदगी की तुलना बारीन्द्र घोष ने कौरव सभा में खड़ी द्रौपदी की शर्मिंदगी से की है. खारे समुद्री पानी से नहाने पर अंडमान की गरमी में चिपचिपाहट और बढ़ जाती थी.
शौचालयों और मूत्रलयों की बेहद कमी थी और वे जेल की इमारत से दूर बने थे. क़ैदी केवल सुबह, दोपहर और शाम शौचालय जा सकते थे. शौचालय के सामने दोहरी लाइन लगाकर बैठना पड़ता था और आदेश होने पर 8-10 के समूह में अंदर जाना पड़ता था. दुष्ट वार्डर उन्हें मन-माफिक समय तक नहीं देते थे, कभी-कभी तो देर होने पर उसी अवस्था में बाहर खींच लाते थे. शौच के समय राजनीतिक क़ैदी आपस में बात न कर सकें, इसलिए वहाँ भी पहरेदार रहता था.
रात का खाना 5-6 बजे ही संपन्न हो जाता था और उसके बाद क़ैदियों को कोठरी के भीतर कर, उसका दरवाजा बाहर से बंद कर दिया जाता था. कोठरी के भीतर रोशनी की कोई व्यवस्था नहीं थी कि वे कुछ पढ-लिख सकें. फिर तो सुबह 6 बजे के बाद ही उसका सींखचों वाला दरवाजा खुलता था. असमय हाजत आने पर उन्हें कोठरी में ही मिट्टी के एक छोटे-से पात्र में निबटना पड़ता था. पात्र इतना छोटा होता था कि उसे एक बार भी इस्तेमाल करना कठिन था. यदि क़ैदी अतिसार (डायरिया) से पीड़ित होता था, जो वहाँ आम बात थी, तो हालत और बुरी हो जाती थी. छोटी-छोटी बातों के लिए क़ैदियों को सुबह 7 बजे से 11 बजे तक और दोपहर 12 से 5 बजे तक हथकड़ी-बेड़ी में खड़ा रहने का दंड दिया जाता था. इस अवस्था में हाजत न रोक पाने पर उन्हें वैसे ही खड़े-खड़े पशुवत् निबटना पड़ता था.
बीमार होने पर बहुत कठिनाई से और जेलर की सहमति से ही डॉक्टर किसी क़ैदी को बीमार घोषित करता था, कभी-कभी तो जेलर की सहमति से ही बीमारी का निदान भी करता था. अस्पताल में भरती करने को अंत तक टाला जाता था. धारणा यह थी कि ख़ासकर राजनीतिक क़ैदी, कठिन श्रम से बचने के लिए बीमारी का बहाना बनाते थे, इसलिए जेलर को इस मामले में भी दख़ल देने का अवसर मिल गया था.
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से मुक्ति के लिए, यहाँ तक कि छोटी-छोटी, नियमानुकूल सुविधाओं के लिए भी, धर्म-परिवर्तन के लिए दबाव बनाते थे. इस तरह राजनीतिक क़ैदियों के रख-रखाव की व्यवस्था ने धार्मिक उत्पीड़न का रंग इख़ि्तयार कर लिया था, जिस पर प्रशासन को कोई आपत्ति नहीं थी. कारण शायद यह रहा हो कि अधिकांश क्रांतिकारी हिंदू थे और प्रशासन को उनके दमन का कोई भी तरीक़ा असहज नहीं करता था.
अपनी क्रूरता और निर्ममता के लिए किवदंती बन चुका अंडमान जेल का जेलर डैविड बारी (David Barrie) हिंदू और मुसलमान क़ैदियों के बीच कटुता पैदा करने का कोई भी मौक़ा नहीं छोड़ता था.
बारी असहायों के लिए आक्रामक, कितु वरिष्ठों का चाटुकार, गुस्सैल, बदजबान, परपीड़क और कम पढ़ा-लिखा व्यक्ति था, जिसे पुस्तकों से नफ़रत थी. वह ख़ुद चाटुकार था और चाटुकारिता पसंद करता था. राजनीतिक क़ैदियों में मानवीय आत्मसम्मान का भाव उसे आहत करता था. शरीर से ठिंगना, मोटा, तोंदियल, छोटी गर्दन, बड़ी-बड़ी मूँछें, घूरकर देखनेवाली गोल आँखें, हमेशा हाथ में एक बड़ा-सा डंडा (या बेंत?) लेकर चलता था. अपनी क्रूरता और निर्दयता के कारण ही वह प्रशासन का इस क़दर चहेता बन गया था कि लगातार 22 साल अपने पद पर बना रहा और वहीं से सेवानिवृत्त हुआ.
डैविड बारी क़ैदियों से जो अक्सर कहा करता था, उसके लिए मजुमदार ने सावरकर को उद्धृत किया है, फ्क़ैदियो, सुनो, ब्रह्मांड का एक ईश्वर है, जो ऊपर स्वर्ग में रहता है. कितु पोर्ट ब्लेअर में दो ईश्वर हैंµएक स्वर्गवाला और दूसरा पृथ्वी वाला. पृथ्वी वाला ईश्वर मैं हूँ और पोर्ट ब्लेअर में रहता हूँ. स्वर्गवाला ईश्वर मरने पर तुम्हें पुरस्कार देगा कितु पृथ्वी वाला तुम्हें अभी और यहीं पुरस्कार देगा. इसलिए ठीक से व्यवहार करो. तुम मेरे ख़िलाफ़ किसी भी वरिष्ठ से शिकायत कर सकते हो. कितु होगा वही, जो मैं कहूँगा. याद रखना, मैं मैं हूँ.य् (मजुमदार, वही, पृ-149)
बारींद्र कुमार घोष ने अपने संस्मरण में बारी के उस भाषण को संक्षिप्त किया है जो उसने अलीपुर बम कांड के क़ैदियों के आगमन पर उनके स्वागत में दिया था. मजुमदार ने उस संक्षेप को उद्धृत किया हैµ
फ्तुम लोग चारों ओर बनी दीवारें देख रहे हो? ये इतनी नीची क्यों हैं? इसलिए कि तुम्हारा इस जगह से निकल भागना असंभव है. इसके चारों ओर 1000 मील दूर तक समुद्र है और जंगलों में रहते है जंगली लोग, जिन्हें जरवा कहते हैं. यदि उन्होंने किसी आदमी को देख लिया तो अपने नुकीले तीर उसके बदन में पैबस्त करने में जरा भी नहीं हिचकेंगे और तुम मुझे देख रहे हो? मेरा नाम है डी बारी. मैं सीधे-सच्चे लोगों का आज्ञाकारी सेवक हूँ, लेकिन जो कुटिल हैं, उनके लिए चार गुना कुटिल हूँ. यदि तुमने मेरी हुक्मउदूली की, ईश्वर ही तुम्हारी मदद करें तो करें, मैं तो कतई नहीं करूँगा. यह भी याद रखना कि ईश्वर पोर्ट ब्लेयर से तीन मील दूर तक के घेरे में कभी नहीं घुसता.य् (मजुमदार, वही, पृ-148-49)
मजुमदार ने बारी के संबंध में उपेंद्रनाथ बनर्जी का आकलन भी उद्धृत किया है, फ्वह देखने में बुलडॉग जैसा लगता थाµ5 फ़िट × 3 फ़िट. ‘टॉम काका की कुटिया’ के मिस्टर लेग्री की तरह. उसे विधाता ने क़ैदियों को नियंत्रण में रखने के लिए ही बनाया था. उसका स्वागत करने का अंदाज संक्षिप्त और तीखा थाµ(सेल्युलर जेल की) इमारत दिखाकर कहता था, यह शेरों को पालतू बनाने के लिए है. यहाँ तुम्हारे मित्र मिल सकते हैं. कितु याद रखना, तुम्हें किसी भी सूरत में उनसे बात नहीं करनी है.य् (वही, पृ-149)
स्वाभाविक था कि ऐसे जेलर के अधीन जघन्य पेशेवर अपराधी क़ैदी शालीन, कितु असहाय राजनीतिक क़ैदियों को अधिक से अधिक यंत्रणा देकर, प्रोन्नति के लिए अपनी योग्यता और वफादारी सिद्ध करने की कोशिश में रहते थे.
मिर्जा ख़ान (छोटा बारी) ऐसी रोबदार अकड़ के साथ चलता था जैसे वही जेलर हो. बारींद्र घोष और सावरकर, दोनों ने उसका वर्णन अलग-अलग संदर्भों में किया है. कितु उसके व्यक्तित्व और चरित्र का एक ही रूप उभरता है.
किताब: नायक बनाम प्रतिनायक
लेखक: कमलाकांत त्रिपाठी
प्रकाशक: किताबघर प्रकाशन
मूल्य: 895 रुपये
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